हे पुत्र हनुमान! तुम अतुलनीय हो! तुम वंदनीय हो।


"श्रीराम-भक्ति" का आशीर्वाद मिलते ही हनुमानजी की प्रसन्नता उनकी आँखों से छलक उठी। उन्होंने भाव-भरी कृतज्ञता के साथ श्रीराम नाम का पावन स्मरण करके अपने दोनों हाथ जोड़ लिए। गहरे भावा-वेश के कारण वे कुछ देर तक बोल न सके। फिर धीमे स्वर में ऋषि अंगवाहन और गुरु महर्षि मतंग से कहा- "मैं आप दोनों का कृतज्ञ हूँ। 

आपने मेरे जीवन के सभी अभिशाप छीनकर मुझे अनूठा वरदान दे दिया।" हनुमानजी की यह अटपटी बात इन दोनों महर्षियों में से किसी को भी समझ में नहीं आई। वहीं पास खड़े वानरराज केसरी व देवी अंजनी भी अपने पुत्र के कथन का अर्थ समझ न सके, पर इन दोनों में से कोई कुछ भी नहीं बोला, बस वे चुपचाप खड़े हनुमानजी के मुख की ओर देखते रहे।

लेकिन ऋषि अंगवाहन चुप न रह सके। उन्होंने हनुमानजी की ओर देखते हुए कहा- पुत्र! तुम किस अभिशाप और किस वरदान की बात कर रहे हो?"

"भगवन! अभिशाप वह, जो मेरी श्री राम भक्ति की साधना में बाधा पहुँचा रहा था, जिसकी वजह से मैं लगातार विचलित एवं बेचैन बना रहता था और वरदान वह, जो आपकी कृपा से मुझे मिला- श्रीराम नाम के पावन स्मरण, श्रीराम प्रभु में स्व अर्पण का वरदान!" 


हनुमानजी की इन बातों ने सदा धीर-गंभीर रहने वाले महर्षि अंगवाहन को भी भावुक कर दिया। अपनी भावनाओं को संयत करते हुए बोले- "वत्स! तुम अतुलनीय हो! तुम्हारा विवेक और वैराग्य वंदनीय है!"

"देवों के जिस वरदान को पाने के लिए बड़े-बड़े तपस्वी जन्मों तक साधना करते है, तुम उन्हें सर्वथा हेय और तुच्छ समझते हो। यह तुम्हारे वैराग्य की चर्मोत्कर्ष है। तुम्हें त्रिभुवन की सभी दिव्यशक्तियों ने अपनी सभी दिव्यताए प्रदान की है और तुमने उनकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा। यह प्रशंसनीय तो है ही, साथ ही आश्चर्यजनक भी है।

पुत्र! मैं तुम्हारी इन निर्मल भावनाओं पर अभिभूत हूँ। तुम जो भी चाहो, मुझसे माँग लो। तुम्हें कुछ देकर, तुम्हारा सहयोग कर मुझे सचमुच गहरी प्रसन्नता होगी।"

ऋषि अंगवाहन के ऐसा कहने पर हनुमानजी ने झुक कर उनके पाँव पकड़ लिए और बोले- "भगवन! सदा-सर्वदा आपका आशीष मुझे मिलता रहे, इससे अधिक मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।"

हनुमानजी के इन भावों ने देवी अंजनी के मन को प्रसन्न कर दिया, वानरराज केसरी भी हनुमानजी की इन बातों से फूले न समाए। अंजनी ने हनुमानजी जी को यहीं सीख दी थी कि 'पुत्र!
भगवान और उनके भक्तों के हाथों से कभी किसी का कोई अकल्याण नहीं होता। उनका कठोर व्यवहार भी जीवन के सुखमय भविष्य का निर्माण करनेवाला और सर्वथा कल्याणकारी होता है।'

आज अंजनी को लगा कि उनकी दी गई सीख सार्थक हुई। हनुमान जी के मन में ऋषि अंगवाहन के प्रति निष्कपट कृतज्ञता उन्हें बहुतभाई।ऋषि अंगवाहन के भी नयन भीगे थे। महर्षि मतंग तो हनुमान के प्रति अपरिमित स्नेह से भरे थे।

अंगवाहन ने हनुमानजी को अपने पाँवो से उठाकर छाती से लगाया और उनका मस्तिष्क चूमते हुए कहा- 'पुत्र! तुम्हारी श्रीराम भक्ति अनुदिन बढ़ेगी। श्रीराम तुम पर सदा कृपावन्त रहेंगे। मेरा आशीर्वादपूर्ण सहयोग तो सदा तुम्हारे साथ रहेगा।"

ऐसा कहते हुए अंगवाहन के मन में बार-बार यही भाव उमड़ रहे थे कि वे हनुमान को और क्या दे डालें, लेकिन उनके सम्मुख तो हनुमान के रूप में साक्षात् निष्कपट निष्काम खड़ी थी। देने जैसा तो वहां कुछ था भी नहीं। बस, वे देर तक खड़े हनुमान पर अपना स्नेह लुटाते रहे। और बीच-बीच में अंजनी और केसरी के सौभाग्य की प्रशंसा करते रहे।

सूर्यदेव अस्त हो रहे थे। उन्होंने महर्षि मतंग से कहा- हे महर्षि! पता नहीं, कितने ही जन्मों का सौभाग्य आज मुझे आपके आश्रम ले आया। आप धन्य है, जो देवी अंजनी को अपनी पुत्री के रूप में अपनाकर हनुमान को दौहित्री के रूप में पाया है। मैं अब यहां से प्रस्थान करूँगा।

लेकिन मेरी स्मृतियों में यह दिन सदा-सर्वदा स्मरणीय बना रहेगा। मैं आज यहां आकर यह जान सका हूँ, सीख सका हूँ कि तप, योग एवं ज्ञान से भक्ति श्रेष्ठ है।

ऋषि अंगवाहन यह कहते हुए चले जा रहे है कि, हे पुत्र हनुमान! तुम अतुलनीय हो! तुम वंदनीय हो।


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